Tuesday, 22 April 2008

मरना चाहते हैं

हम इन अंधी गलियों में
अकेले भटक रहे हैं
भयाक्रान्त/अजनबी
और अकेले।
अंधेरे में
एक खूनी पंजा हमारी ओर बढ़ता है
और गर्म लहू से
हमारे माथे पर लिख जाता है ‘नास्तिक’
हम बेबसी में छटपटाते हैं
बागी कबूतर की तरह पंख फड़फड़ाते हैं
गंदी हवा हमारी सांसों में दम तोड़ती है
जिन्दगी जोंक बनकर चूसती है
भावनाएं रद्दी की तरह टके सेर बिकती हैं
अनास्था का विष हमारी आंखों में उबलता है
और
अपने कंधों पर अपना सलीब उठा
हम समानान्तर चोटियों पर चढ़ते हैं
पीड़ा से कराहते हैं
और
मरने से पहले मरना चाहते हैं।

16 comments:

anuradha srivastav said...

अपने कंधों पर अपना सलीब उठा
हम समानान्तर चोटियों पर चढ़ते हैं
पीड़ा से कराहते हैं
और
मरने से पहले मरना चाहते हैं।....

बहुत सही चित्रण। शायद अपने शहर की बदली फिज़ा से आहत हो कर लिखा है।ब्लाग जगत में आपका स्वागत है। नियमित लेखन की कोशिश करियेगा।

रश्मि प्रभा... said...

सुन्दर शब्द मुझे आकर्षित करते हैं,
कोमल भावनाएं एक उड़ान देती है......
आपकी कविताओं में आकर्षण और सच है.......

राज भाटिय़ा said...

अपने कंधों पर अपना सलीब उठा
हम समानान्तर चोटियों पर चढ़ते हैं
पीड़ा से कराहते हैं
और
मरने से पहले मरना चाहते हैं।
राज भाई बहुत ही मर्मिक कविता हे आज के सच पर एक एक शव्द नस्तर की तरह से हे,धन्यवाद

रवीन्द्र प्रभात said...

आपकी अभिव्यक्ति अत्यन्त ही गंभीर और सारगर्भित है , क्रम बनाए रखें !

समय चक्र said...

आपकी अभिव्यक्ति अत्यन्त ही गंभीर और सारगर्भित है

Anonymous said...

Bahut sundar kavita hai.
BADHAYI.

योगेन्द्र मौदगिल said...

Achhi kavita
badhai...

BrijmohanShrivastava said...

प्रिय जैन साहिब /आप जैसे विद्वान को नियमित लिखते रहना चाहिए

हरकीरत ' हीर' said...

एक खूनी पंजा हमारी ओर बढ़ता है
और गर्म लहू से
हमारे माथे पर लिख जाता है ‘नास्तिक’
हम बेबसी में छटपटाते हैं
बागी कबूतर की तरह पंख फड़फड़ाते हैं
गंदी हवा हमारी सांसों में दम तोड़ती है

बहुत सुंदर....रश्मि जी ने सही कहा ...आपकी कविता में आकर्षण है जो पाठक को अपनी ओर बरबस खिचती है....और यही कविता लेखन की सफलता है.....!!

Chandrika Shubham said...

Nice poem! :)

Akshitaa (Pakhi) said...

बहुत बढ़िया लिखा आपने...पसंद आई आपकी रचना.

_______________
पाखी की दुनिया में- 'जब अख़बार में हुई पाखी की चर्चा'

Rajeysha said...

मि‍त्र
दरअसल ये खूंजी पंजा हमारा अपना ही होता है जो आस्‍ि‍तकता की जंजीरों को पहचान कर उसकी प्रति‍क्रया में नास्‍ति‍कता जैसा कुछ रचना चाहता है। पर जैसा कि‍ हम महसूस कर सकते हैं इसमें भी हम बेवजह सलीबें ढोने लगते हैं और अंतत: उसी पुरानी जगह लौट आते हैं जहां हमने आस्‍ति‍कता को नकारा था। तो मरने से पहले ही हमें मरने को डर को जानना और समझना होगा उससे नि‍जात पानी होगी, तभी हम मरने से पहले के मरने की दुखदायी इच्‍छा से मुक्‍त हो सकते हैं। नहीं ?

निर्मला कपिला said...

एक खूनी पंजा हमारी ओर बढ़ता है
और गर्म लहू से
हमारे माथे पर लिख जाता है ‘नास्तिक’
हम बेबसी में छटपटाते हैं
बागी कबूतर की तरह पंख फड़फड़ाते हैं
गंदी हवा हमारी सांसों में दम तोड़ती है
निश्बद हूँ आपकी उत्कृष्ठ अभिव्यक्ति पर आपको पत्र पत्रिकाओं मे बहुत पढा है आज पहली बार ब्लाग देखा बहुत खुशी हुई। बहुत दिन से नेट से दूर थी शायद इस लिये
शुभकामनायें

संजय भास्‍कर said...

... बेहद प्रभावशाली ।

Vinay said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

----
तख़लीक़-ए-नज़र
तकनीक-दृष्टा
चाँद, बादल और शाम
गुलाबी कोंपलें
The Vinay Prajapati

Anonymous said...

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