Tuesday, 22 April 2008

नहीं देखा समुद्र

नहीं देखा मैंने समुद्र
लेकिन महसूस करता हूँ
उसकी गर्जन अपने भीतर।
छूता है जब कोई मोती
मेरे मन के चेहरे को
लहरें उठा कर फेंक देती हैं
कुछ अस्फुट फेनिल झाग
सीपियाँ खुल कर बिखर जाती हैं
और सारे संदर्भ
मझे अर्थ पूर्ण उपलब्धियों के साथ
जोड़ जाते हैं।
कैसा लगता है
तूफान के बाद खामोश समुद्र
जो आत्मा पहले निस्वर होती है
हमारी हथेलियों में
कर्म की निश्चित संभावनाएं
उसकी पूर्ति हमारी आवश्यकता को
प्रमाणित करती है।
नहीं देखा समुद्र कभी
फिर भी महसूस करता हूँ
उसे अपने भीतर बजता हुआ।

2 comments:

Anonymous said...

अच्छी कविता है - लिखते चलिये।

Anonymous said...

Man ko chho gayi ye kavita. Badhaayi.