Tuesday, 22 April 2008
मरना चाहते हैं
अकेले भटक रहे हैं
भयाक्रान्त/अजनबी
और अकेले।
अंधेरे में
एक खूनी पंजा हमारी ओर बढ़ता है
और गर्म लहू से
हमारे माथे पर लिख जाता है ‘नास्तिक’
हम बेबसी में छटपटाते हैं
बागी कबूतर की तरह पंख फड़फड़ाते हैं
गंदी हवा हमारी सांसों में दम तोड़ती है
जिन्दगी जोंक बनकर चूसती है
भावनाएं रद्दी की तरह टके सेर बिकती हैं
अनास्था का विष हमारी आंखों में उबलता है
और
अपने कंधों पर अपना सलीब उठा
हम समानान्तर चोटियों पर चढ़ते हैं
पीड़ा से कराहते हैं
और
मरने से पहले मरना चाहते हैं।
नहीं देखा समुद्र
लेकिन महसूस करता हूँ
उसकी गर्जन अपने भीतर।
छूता है जब कोई मोती
मेरे मन के चेहरे को
लहरें उठा कर फेंक देती हैं
कुछ अस्फुट फेनिल झाग
सीपियाँ खुल कर बिखर जाती हैं
और सारे संदर्भ
मझे अर्थ पूर्ण उपलब्धियों के साथ
जोड़ जाते हैं।
कैसा लगता है
तूफान के बाद खामोश समुद्र
जो आत्मा पहले निस्वर होती है
हमारी हथेलियों में
कर्म की निश्चित संभावनाएं
उसकी पूर्ति हमारी आवश्यकता को
प्रमाणित करती है।
नहीं देखा समुद्र कभी
फिर भी महसूस करता हूँ
उसे अपने भीतर बजता हुआ।
Thursday, 17 April 2008
राजकुमार जैन ‘राजन’- संक्षिप्त परिचय
23 जून 1963, अकोला, चित्तौडगढ, राजस्थान, भारत।
शिक्षा
एम0ए0 (हिन्दी)
लेखन
हिन्दी एवं राजस्थानी में नियमित लेखन, देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में हजारों रचनाएँ प्रकाशित।
पुस्तकें
नेक हंस, लाख टके की बात, झनकू का गाना, आदर्श मित्र, बच्चों की सरकार, पशु-पक्षि यों के गीत, आदिवासी बालक, एक था गुणीराम, खुशी रा आँसू।
अन्य विवरण
”राकेट” (लघु बाल मासिक), “श्रमण स्वर” (मासिक) का सम्पादन।
“हिमालिनी” (काठमाण्डु, नेपाल, मासिक), एवं “बाल वाटिका” (मासिक) का सहसम्पादन।
पुरस्कार/सम्मान
महाराणा मेवाड फाउण्डेशन, उदयपुर, राजस्थान,
शकुन्तला शिरोठिया बाल साहित्य पुरस्कार, इलाहाबाद, उ0प्र0,
पं0 प्रसाद पाठक स्मृति बाल साहित्य पुरस्कार, मथुरा, उ0प्र0,
नागरी बाल साहित्य संस्थान, बलिया, उ0प्र0,
भारतीय बाल एवं युवा कल्याण संस्थान, खण्डवा, म0प्र0,
पं0 भूपनारायण दीक्षि त बाल साहित्य पुरस्कार, हरदोई, उ0प्र0
एवं कमला चौहान स्मृति ट्रस्ट, देहरादून, उत्तराखण्ड से सम्मानित।
भारतीय जीवन बीमा निगम के चेयरमैन क्लब अभिकर्ता।
सम्पर्क सूत्र
25/26, नेहरू बाजार, चित्तौडगढ, राजस्थान-312001, भारत।
फोन
01472-247039
01476-283222
09828219919
Wednesday, 16 April 2008
हरे पेड़ की छाँव
इसको छोड़ कहीं जाने में, रूक जाते हैं पाँव।
कोयल बैठी, चिडिया बैठी, हमें सुनाती गाना।
जाने वाले राहगीर फिर, लौट यहीं पर आना।
इसी छाँव में खेल खेलते, खुश होते हैं बच्चे।
कभी न चाहो बुरा किसी का, सदा रहो तुम सच्चे।
आओ मिलकर नाचें-गायें, जैसे अपना गाँव।
माँ की ममता सी लगती है, हरे पेड़ की छाँव।।
हमको प्यारे लगते गाँव
पीपल पर कौओं की काँव। हमको प्यारे लगते गाँव।
कोयल की मीठी बोली। पक्के रंगों की होली।
गाँव के कच्चे रस्तों पर, भागे बच्चों की टोली।
और सने मिट्टी में पाँव। हमको प्यारे लगते गाँव।
हरे-भरे लहराते खेत। पनघट पर सखियों का हेत।
उड़ती अच्छी लगती है, मिट्टी सी सोने की रेत।
पानी में कागज की नाव। हमको प्यारे लगते गाँव।
चोरी से अंबिया लाना। छत पर छुप-छुप कर खाना।
नन्हीं मुनिया जब माँगे, उसे अंगूठा दिखलाना।
माली की मूछों पर ताव। हमको प्यारे लगते गाँव।
बच्चों की लम्बी सी रेल। गिल्ली-डण्डे का वो मेल।
खेतों में पकड़ा-पकड़ी, आँख-मिचौली का वो खेल।
जब आता अपने पे दाँव। हमको प्यारे लगते गाँव।